हँसते हुए चेहरे में कोई शाम छुपी थी
ख़ुश-लहजा तख़ातुब की खनक नीम चढ़ी थी
जल्वों की अना तोड़ गई एक ही पल में
कचनार सी बिजली मेरे सीने में उड़ी थी
पीता रहा दरिया के तमव्वुज को शनावर
होंटों पे नदी के भी अजब तिश्ना-लबी थी
ख़ुश-रंग मआनी के तआक़ुब में रहा मैं
ख़त्त-ए-लब-ए-लालीं की हर इक मौज ख़फ़ी थी
हर सम्त रम-ए-हफ़्त बला शोला-फ़िशाँ है
बचपन में तो हर गाम पे इक सब्ज़-परी थी
सदियों से है जलते हुए टापू की अमानत
वो वादी-ए-गुल-रंग जो ख़्वाबों में पली थी
जलते हुए कोहसार पे इक शोख़ गिलहरी
मुँह मोड़ के गुलशन से ब-सद नाज़ खड़ी थी
नेज़े की अनी थी रग-ए-अनफ़ास में रक़्साँ
वो ताज़ा हवाओं में था खिड़की भी खुली थी
हम पी भी गए और सलामत भी हैं 'अम्बर'
पानी की हर इक बूँद में हीरे की कनी थी
ग़ज़ल
हँसते हुए चेहरे में कोई शाम छुपी थी
अम्बर बहराईची