हँस दिए ज़ख़्म-ए-जिगर जैसे कि गुल-हा-ए-बहार
मुझ पे माइल है बहुत नर्गिस-ए-शहला-ए-बहार
बे-ख़याली है ख़याल-ए-रुख़-ए-ज़ेबा-ए-बहार
बस यही आरज़ू-ए-दिल है कि आ जाए बहार
मस्त इन सुर्ख़ नज़ारों में नज़र आए बहार
आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत से जो जल जाए बहार
मिस्ल-ए-मजनूँ नज़र आया मुझे साैदा-ए-बहार
सज के आई है मिरे सामने लैला-ए-बहार
जब वो गुलशन में सँवरती है बरसती है शराब
जब वो बहके तो ज़माने को भी बहकाए बहार
झूम कर फूल रुख़-ए-यार पे होते हैं फ़िदा
कैफ़-ए-नज़्ज़ारगी-ए-हुस्न से लहराए बहार
कशिश-ए-रंग-ए-मोहब्बत से वो आया है यहाँ
ऐ ख़ुदा अब मिरे घर से न कभी जाए बहार
मो'जिज़ा मैं ने ये देखा तिरे लब पर अक्सर
मुस्कुराहट में निहाँ बर्क़-ए-तजल्ला-ए-बहार
मिरी आँखों में उतर आई है तस्वीर तिरी
मेरी आँखों से ज़रा देख तमाशा-ए-बहार
आईना दिल का 'सुहैल' आईना-ए-शौक़ है बस
उस की मासूम निगाही से न शरमाए बहार
ग़ज़ल
हँस दिए ज़ख़्म-ए-जिगर जैसे कि गुल-हा-ए-बहार
सुहैल काकोरवी