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हंगामा-ए-हस्ती से गुज़र क्यूँ नहीं जाते | शाही शायरी
hangama-e-hasti se guzar kyun nahin jate

ग़ज़ल

हंगामा-ए-हस्ती से गुज़र क्यूँ नहीं जाते

असलम फ़र्रुख़ी

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हंगामा-ए-हस्ती से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
रस्ते में खड़े हो गए घर क्यूँ नहीं जाते

मय-ख़ाने में शिकवा है बहुत तीरा-शबी का
मय-ख़ाने में बा-दीदा-ए-तर क्यूँ नहीं जाते

अब जुब्बा-ओ-दस्तार की वक़अत नहीं बाक़ी
रिंदों में ब-अंदाज़-ए-दिगर क्यूँ नहीं जाते

जिस शहर में गुमराही अज़ीज़-ए-दिल-ओ-जाँ हो
उस शहर-ए-मलामत में खिज़र क्यूँ नहीं जाते

तोशा नहीं कोई नसीम-ए-सहरी का
बे-राहिला ओ ज़ाद-ए-सफ़र क्यूँ नहीं जाते

शायद कि शनासा हो कोई बे-हुनरी का
क्यूँ डरते हो बाज़ार-ए-हुनर क्यूँ नहीं जाते

हर लहज़ा है जो सर के लिए इक नई ठोकर
उस ज़िल्लत-ए-हर-रोज़ से मर क्यूँ नहीं जाते

हम जिस के लिए ज़िंदा हैं बा-हाल-ए-परेशाँ
अब वो भी ये कहता है कि मर क्यूँ नहीं जाते

क्यूँ गोशा-ए-ख़लवत से निकलते नहीं 'असलम'
बैठे हैं जिधर लोग उधर क्यूँ नहीं जाते