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हंगामहव-ए-हवस-कार मोहब्बत के लिए है | शाही शायरी
hangam-e-hawas-kar mohabbat ke liye hai

ग़ज़ल

हंगामहव-ए-हवस-कार मोहब्बत के लिए है

ख़ावर जीलानी

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हंगाम-ए-हवस-कार मोहब्बत के लिए है
है जो भी कशाकश वो नदामत के लिए है

जीना तो अलग बात है मरना भी यहाँ पर
हर शख़्स की अपनी ही ज़रूरत के लिए है

मिलने तुझे आया हूँ न मिलने के लिए ही
आमद ये मिरी अस्ल में रुख़्सत के लिए है

आख़िर को यही कार-गरी-ए-बर्फ़ पिघल कर
मौजों के तवस्सुल से हरारत के लिए है

मैं हाथ न आने का हूँ तेरे ऐ ज़माने
यानी मिरा होना तिरी हसरत के लिए है

मैं नींद का दर खोले हुए हूँ तिरी ख़ातिर
हर ख़्वाब मिरा तेरी सहूलत के लिए है

वो है कि नज़र आता नहीं और किसी को
वो है कि फ़क़त मेरी बसारत के लिए है

क़ुदरत ही को मंज़ूर है कुछ और वगरना
हर लम्हा-ए-आइन्दा क़यामत के लिए है

इम्कान ने जो शहर बसाया है वहाँ पर
हर चश्म-ए-तमाशा नई हैरत के लिए है