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हमीं हैं जिन्हें इश्क़ है बाँकपन से | शाही शायरी
hamin hain jinhen ishq hai bankpan se

ग़ज़ल

हमीं हैं जिन्हें इश्क़ है बाँकपन से

नूर मोहम्मद नूर

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हमीं हैं जिन्हें इश्क़ है बाँकपन से
हमीं हैं जो उलझें हैं दार-ओ-रसन से

किसी जिस्म का हुस्न है पैरहन से
कहीं पैरहन ख़ुद सजा है बदन से

ये माना है जन्नत बहुत ख़ूबसूरत
मगर ख़ूबसूरत न होगी वतन से

गुलों ने चुराया तिरा हुस्न-ए-रंगीं
मोअ'त्तर फ़ज़ा है तिरे पैरहन से

न तेशा न सर काम आया वफ़ा में
सदा आ रही है ये जू-ए-लबन से

तड़प कर न मर जाए बुलबुल क़फ़स में
न ले जाए गुल कोई गुलचीं चमन से

रक़ीबों से सरगर्म है उन की महफ़िल
फ़क़त 'नूर' है दूर उस अंजुमन से