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हमीं हैं दर-हक़ीक़त अपने क़ारी | शाही शायरी
hamin hain dar-haqiqat apne qari

ग़ज़ल

हमीं हैं दर-हक़ीक़त अपने क़ारी

हामिद हुसैन हामिद

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हमीं हैं दर-हक़ीक़त अपने क़ारी
हमीं तक बात पहुँचेगी हमारी

कहीं पर सर छुपाना ही पड़ेगा
अगर होती रहेगी संग-बारी

कभी फ़ुर्सत मिले हम को तो सोचें
कोई मंज़र है कितना एतिबारी

सभी को धूप में तपना पड़ेगा
जहाँ सूरज की पहुँची है सवारी

मुक़द्दर हो चुकी ख़िर्दा-फ़रोशी
यूँही गिनते रहो बस रेज़गारी

मुझे हर आन खाए जा रहा है
मिरे एहसास का कुत्ता शिकारी

हर इक दीवार गिरती देखता हूँ
बहुत महँगी पड़ी है होशियारी