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हमेशा तंग रहा मुझ पे ज़िंदगी का लिबास | शाही शायरी
hamesha tang raha mujh pe zindagi ka libas

ग़ज़ल

हमेशा तंग रहा मुझ पे ज़िंदगी का लिबास

असग़र मेहदी होश

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हमेशा तंग रहा मुझ पे ज़िंदगी का लिबास
कभी खिला न मिरे जिस्म पर ख़ुशी का लिबास

हसीन फूलों की सोहबत में और क्या होता
उलझ के रह गया काँटों में ज़िंदगी का लिबास

जो जल गया है वही जानता है अपनी जलन
किसी के जिस्म पे अटता नहीं किसी का लिबास

ये क्या सितम किया तुम ने तो चाक कर डाला
ज़रा ज़रा सा मसकना था दोस्ती का लिबास

सँभल सँभल के चलो एहतियात से पहनो
बड़े नसीब से मिलता है आदमी का लिबास

लिबास-ए-दार से मुझ को डराने वालो सुनो
पहन के आज मैं आया हूँ ख़ुद-कुशी का लिबास

वो इक फ़क़ीर था जिस ने उतार फेंका था
सफ़ेद-पोशों के मुँह पर तवंगरी का लिबास