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हमेशा दिल में जो अपने ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ओ-काकुल है | शाही शायरी
hamesha dil mein jo apne KHayal-e-zulf-o-kakul hai

ग़ज़ल

हमेशा दिल में जो अपने ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ओ-काकुल है

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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हमेशा दिल में जो अपने ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ओ-काकुल है
तो सीने में नफ़स हर एक मौज-ए-बू-ए-सुम्बुल है

फ़साँ है सख़्त-जानी मेरी तेग़-ए-नाज़-ए-क़ातिल को
कि याँ जितना है रंज-ए-नज़्अ' उतना वाँ तग़ाफ़ुल है

मुझी को कुछ तू अपने कूचे में आने नहीं देता
वगर्ना ऐ सितम-ईजाद हर गुलशन में बुलबुल है

तिरी मीना-ए-गर्दन की सिफ़त की है जो ऐ साक़ी
मिरी आवाज़ को कहते हैं सब आवाज़-ए-क़ुलक़ुल है

वही दिल है भरा हो नश्शा जिस में जाम-ए-वहदत का
कि है छाती का पत्थर बज़्म में शीशा जो बे मुल है

मरे जो सोज़-ए-ग़म से जल के हो वो नेक-नाम आख़िर
चराग़-ए-मुर्दा को अक्सर यही कहते हैं सब गुल है

दिया सामान-ए-गुलशन हम को हिज्र-ए-रश्क-ए-गुलशन ने
परेशानी है सुम्बुल नाला बुलबुल दाग़-ए-दिल गुल है

लिखी हैं वस्फ़ याँ तक नर्गिस-ए-मख़मूर साक़ी की
है ख़ामा गर्दन-ए-मीना सरीर-ए-ख़ामा क़ुलक़ुल है

बढ़ा कर रब्त क्यूँकर कम न मुँह दिखलाए वो मह-रू
हुआ जब माह-ए-कामिल दिन पे दिन उस को तनज़्ज़ुल है

बहाती है कहीं भी मौज-ए-नक़्श-ए-बोरिया ख़स को
न देगा ना-तवाँ को रंज जो साहब तहम्मुल है

कहा उस गुल ने कुल सामान-ए-गुलशन में भी रटता हूँ
जो आशिक़ है मिरा नालों से वो हम-चश्म-ए-बुलबुल है

ख़त-ओ-रुख़सार-ओ-चशम-ओ-ज़ुल्फ़ दिखला कर लगा कहने
ये रैहाँ है ये गुल है और ये नर्गिस है ये सुम्बुल है

ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-जानाँ में जो रोऊँ तो उगे सुम्बुल
'वज़ीर' आँसू मिरा हर एक गोया तुख़्म-ए-सुम्बुल है