हमें ज़ाहिद जो काफ़िर जानता है
तो फिर पत्थर को तू क्यूँ मानता है
न पूछा उस ने मुझ को कौन है तू
हुआ साबित कि वो पहचानता है
न मुझ से फेर मुँह काफ़िर ख़ुदारा
अरे क़ुरआन क्यूँ गर्दानता है
कहूँ किस से कि क्या है यार मेरा
उसे कुछ मेरा जी ही जानता है
बहुत चाहा न बोलूँ यार तुझ से
मगर ज़ालिम ये दिल कब मानता है
नहीं छलनी हमारा दिल न होगा
हमारी बात क्यूँ तू छानता है
न देंगे जान हम कहने पे उस के
रक़ीब-ए-रू-सियह क्यूँ तानता है
भला क्यूँ-कर उसे समझाए कोई
वो काफ़िर कब किसी की मानता है
ग़ज़ब है छेड़ना उस फ़ित्ना-गर को
ये 'अंजुम' दिल में क्या तू ढानता है
ग़ज़ल
हमें ज़ाहिद जो काफ़िर जानता है
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम