हमें सफ़र की अज़िय्यत से फिर गुज़रना है
तुम्हारे शहर में फ़िक्र ओ नज़र पे पहरा है
सज़ा के तौर पे मैं दोस्तों से मिलता हूँ
असर शिकस्त-पसंदी का मुझ पे गहरा है
वो एक लख़्त ख़लाओं में घूरते रहना
किसी तवील मसाफ़त का पेश-ख़ेमा है
ये और बात कि तुम भी यहाँ के शहरी हो
जो मैं ने तुम को सुनाया था मेरा क़िस्सा है
हम अपने शानों पे फिरते हैं क़त्ल-गाह लिए
ख़ुद अपने क़त्ल की साज़िश हमारा विर्सा है
ग़ज़ल
हमें सफ़र की अज़िय्यत से फिर गुज़रना है
आशुफ़्ता चंगेज़ी