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हमें रास आनी है राहों की गठरी | शाही शायरी
hamein ras aani hai rahon ki gaThri

ग़ज़ल

हमें रास आनी है राहों की गठरी

बकुल देव

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हमें रास आनी है राहों की गठरी
रखो पास अपनी पनाहों की गठरी

बदल जाए काश इस हसीं मरहले पर
हमारी तुम्हारी गुनाहों की गठरी

मोहब्बत की राहें थीं हमवार लेकिन
हमीं ढो न पाए निबाहों की गठरी

तकल्लुफ़ के सामान बिखरे थे बाहम
सो बाँधे रहे हम भी बाँहों की गठरी

उजाले के हैं इन दिनों दाम ऊँचे
चलो लूट लें रू-सियाहों की गठरी

धरी रह गई मुंसिफ़-ए-दिल के आगे
बयानों की गठरी गवाहों की गठरी

न उगली ही जाए न निगले बने है
गले में फँसी एक आहों की गठरी

ये सूखी हुई फ़स्ल-ए-ग़म जी उठेगी
अगर खुल गई इन निगाहों की गठरी

उठेंगी किसी रोज़ सैलाब बन कर
ये आबादियाँ हैं तबाहों की गठरी

मिरी सीधी सादी सी बातों पे मत जा
मिरी ज़ात है कज-कुलाहों की गठरी