हमें नसीब कोई दीदा-वर नहीं होता
जो दस्तरस में हमारी हुनर नहीं होता
मैं रोज़ उस से यहीं हम-कलाम होता हूँ
दरून-ए-रूह किसी का गुज़र नहीं होता
जला दिए हैं किसी ने पुराने ख़त वर्ना
फ़ज़ा में ऐसा तो रक़्स-ए-शरर नहीं होता
मोहब्बतों के कई इस्म मैं ने पढ़ डाले
अजब तिलिस्म है वा इस का दर नहीं होता
अगर मैं शब की सियाही न चीर कर निकलूँ
कोई उजाला मिरा हम-सफ़र नहीं होता
किसी के नक़्श-ए-क़दम की थी जुस्तुजू वर्ना
मैं इस तरह तो 'सुख़न' दर-ब-दर नहीं होता
ग़ज़ल
हमें नसीब कोई दीदा-वर नहीं होता
अब्दुल वहाब सुख़न