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हमें ख़बर भी नहीं यार खींचता है कोई | शाही शायरी
hamein KHabar bhi nahin yar khinchta hai koi

ग़ज़ल

हमें ख़बर भी नहीं यार खींचता है कोई

शाहिद कमाल

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हमें ख़बर भी नहीं यार खींचता है कोई
हमारे बीच में दीवार खींचता है कोई

ये कैसा दश्त-ए-तहय्युर है याँ से कूच करो
हमारे पाँव से रफ़्तार खींचता है कोई

है चाक चाक हमारे लहू का पैराहन
हमारी रूह से झंकार खींचता है कोई

मैं चल रहा हूँ मुसलसल बिना तवक़्क़ुफ़ के
मुझे ब-सूरत-ए-परकार खींचता है कोई

यहाँ तो माल-ए-ग़नीमत समझ रहे हैं सभी
क़बा बचाओ तो दस्तार खींचता है कोई

उसे सिखाओ कि तहज़ीब-ए-गुफ़्तुगू क्या है
ज़रा सी बात पे तलवार खींचता है कोई

है मिरा नाम भी इस महज़र-ए-शहादत में
मुझे भी लश्कर-ए-इंकार खींचता है कोई

मुनाफ़-ए-जज़्ब-ए-दरूँ मैं हूँ इन दिनों 'शाहिद'
मुझे इक अक्स-ए-पुर-असरार खींचता है कोई