हमें भी क्यूँ न हो दा'वा कि हम भी यकता हैं
हमारे ख़ून के प्यासे जब अहल-ए-दुनिया हैं
बस इस ख़ता पे कि पहचानते हैं क्यूँ सब को
ये साहिबान-ए-नज़र शहर भर में रुस्वा हैं
हम अहल-ए-दिल का ज़माना ही साथ दे न सका
हमें भी दुख है कि हम इस सफ़र में तन्हा हैं
हमें न जानो फ़क़त डूबता हुआ लम्हा
हमें यक़ीं है कि हम ही निशान-ए-फ़र्दा हैं
मिटा सकेगी हमें क्या कोई सियह-बख़्ती
हम अपना जिस्म भी हैं हम ही अपना साया हैं
हमें पुकार न अब ऐ अरूस-ए-शबनम-ओ-गुल
हमें न ढूँढ कि हम बे-कनार सहरा हैं
सदा-ए-साज़ नहीं हम-नवा-ए-ग़म ही सही
हमें सुनो कि हमें ए'तिबार-ए-नग़्मा हैं

ग़ज़ल
हमें भी क्यूँ न हो दा'वा कि हम भी यकता हैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी