हमारी उस से जो सूरत हुई सफ़ाई की
हुजूम-ए-ग़म ने अदू पर बड़ी चढ़ाई की
फ़क़ीर-ए-मस्त तिरे हाल-ए-वस्ल क्या जानें
कि ओढ़े बैठे हैं कमली शब-ए-जुदाई की
गदा-ए-कूचा-ए-जानाँ हूँ मर्तबा है बड़ा
कि मेरे नाम है जागीर बे-नवाई की
हमीं तो आलम-ए-हस्ती में इक निकम्मे हैं
तुम्हीं में आ गईं सब ख़ूबियाँ ख़ुदाई की
मिले न क्यूँ तुम्हें शाहों का मर्तबा 'आशिक़'
बहुत दिनों दर-ए-ख़्वाजा पे है गदाई की
ग़ज़ल
हमारी उस से जो सूरत हुई सफ़ाई की
आशिक़ अकबराबादी