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हमारी सम्त हैं सारे ढलाव | शाही शायरी
hamari samt hain sare Dhalaw

ग़ज़ल

हमारी सम्त हैं सारे ढलाव

अहसन अली ख़ाँ

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हमारी सम्त हैं सारे ढलाव
पड़ा हर सैल का हम पर दबाव

मिले हैं सादा-लौही की सज़ा में
लुटेरे नाख़ुदा काग़ज़ की नाव

वहाँ भी वहशतें तन्हाइयाँ हैं
ज़रा सहरा से वापस घर तो जाओ

न जाने कब ये आग आ जाए बाहर
कि सीनों में दहकते हैं अलाव

हवा का जिस तरफ़ रुख़ हो गया है
उसी जानिब है शाख़ों का झुकाओ

ज़मीं क्या आसमाँ भी मुंतज़िर है
हिसार-ए-ज़ात से बाहर तो आओ

कहेंगे लोग 'अहसन' तुम को पागल
मोहब्बत है तो ये तोहमत उठाओ