हमारी सम्त हैं सारे ढलाव
पड़ा हर सैल का हम पर दबाव
मिले हैं सादा-लौही की सज़ा में
लुटेरे नाख़ुदा काग़ज़ की नाव
वहाँ भी वहशतें तन्हाइयाँ हैं
ज़रा सहरा से वापस घर तो जाओ
न जाने कब ये आग आ जाए बाहर
कि सीनों में दहकते हैं अलाव
हवा का जिस तरफ़ रुख़ हो गया है
उसी जानिब है शाख़ों का झुकाओ
ज़मीं क्या आसमाँ भी मुंतज़िर है
हिसार-ए-ज़ात से बाहर तो आओ
कहेंगे लोग 'अहसन' तुम को पागल
मोहब्बत है तो ये तोहमत उठाओ
ग़ज़ल
हमारी सम्त हैं सारे ढलाव
अहसन अली ख़ाँ