हमारी सैर को गुलशन से कू-ए-यार बेहतर था
नफ़ीर-ए-बुलबुलों से नाला-हा-ए-ज़ार बेहतर था
अनल-हक़ की हक़ीक़त को जो हो मंसूर सो जाने
कि उस को आसमाँ चढ़ने से चढ़ना दार बेहतर था
कभू बीमार सुन कर वो अयादत को तो आता था
हमें अपने भले होने से वो आज़ार बेहतर था
तू अपने मन का मनका फेर ज़ाहिद वर्ना क्या हासिल
तुझे इस मक्र की तस्बीह से ज़ुन्नार बेहतर था
न कहता मैं कि आशिक़ हूँ तिरा तो क्यूँ वो रम करता
मुझे इक़रार अब करने से वो इंकार बेहतर था
हमारी अक़्ल में घर की गिरफ़्तारी से 'हातिम' को
कहो दीवाना फिरना कूचा ओ बाज़ार बेहतर था
ग़ज़ल
हमारी सैर को गुलशन से कू-ए-यार बेहतर था
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम