हमारी महफ़िलों में बे-हिजाब आने से क्या होगा
नहीं जब होश में हम जल्वा फ़रमाने से क्या होगा
जुनूँ के साथ थोड़ी सी फ़ज़ा-ए-ला-मकाँ भी दे
मिरी वहशत को इस दुनिया के वीराने से क्या होगा
है मर जाना कलीद-ए-फ़त्ह समझाया था रिंदों ने
मगर नासेह ये कहता है कि मर जाने से क्या होगा
ज़हे क़िस्मत अगर हज़रत ख़ुद अपना जाएज़ा भी लें
हमारी ज़िंदगी पर तीर बरसाने से क्या होगा
अगर हमदर्द बनते हो तो ज़ंजीरें ज़रा खोलो
मिरी पा-बस्तगी पर यूँही ग़म खाने से क्या होगा
दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ छोड़ें ये हम से हो नहीं सकता
कोई वाइज़ से कह दो तेरे बहकाने से क्या होगा
जिसे देखो वो है सरमस्त-ए-सहबा-ए-ख़िरद यकसर
ख़ुदावंदा! यहाँ इक तेरे दीवाने से क्या होगा
नहीं क़ल्ब ओ जिगर में ख़ून का क़तरा कोई बाक़ी
अज़ीज़ो अब हमारे होश में आने से क्या होगा
दुखों को खो नहीं सकते अगर अहल-ए-ख़िरद 'अरशी'
तो ख़ाली सीना-ए-अफ़्लाक बर्माने से क्या होगा
ग़ज़ल
हमारी महफ़िलों में बे-हिजाब आने से क्या होगा
अर्शी रामपुरी