हमारी ख़्वाहिशों में सरगिरानी भी कहाँ थी
और उस को ज़िंदगी हम से निभानी भी कहाँ थी
हवा ले आई थी इस शहर में ऐ दोस्त वर्ना
अभी पेश-ए-नज़र नक़्ल-ए-मकानी भी कहाँ थी
तुम्हारा नक़्श इन आँखों से धुलता भी तो कैसे
कि दरिया में वो पहली सी रवानी भी कहाँ थी
वो अपने ज़ोम में बिछड़ा मगर मैं सोचता हूँ
हमारे दरमियाँ कोई कहानी भी कहाँ थी
बहुत जल्दी चले आए हैं हम कार-ए-जहाँ से
वगर्ना ज़िंदगी इतनी पुरानी भी कहाँ थी
ग़ज़ल
हमारी ख़्वाहिशों में सरगिरानी भी कहाँ थी
हामिद ज़हूर