हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ
वो अब्र-ए-सुर्ख़ तो मैं नख़्ल-ए-इंतिक़ाम हुआ
यहीं से मेरे अदू का ख़मीर उट्ठा था
ज़मीन देख के मैं तेग़-ए-बे-नियाम हुआ
ख़बर नहीं है मिरे बादशाह को शायद
हज़ार मर्तबा आज़ाद ये ग़ुलाम हुआ
अजब सफ़र था अजब-तर मुसाफ़िरत मेरी
ज़मीं शुरू हुई और मैं तमाम हुआ
वो काहिली है कि दिल की तरफ़ से ग़ाफ़िल हैं
ख़ुद अपने घर का भी हम से न इंतिज़ाम हुआ
हुई है ख़त्म दर-ओ-बाम की कम-अस्बाबी
मयस्सर आज वो सामान-ए-इन्हिदाम हुआ
ग़ज़ल
हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ
अहमद जावेद