हमारी चाह साहब जानते हैं
कहूँ क्या आह साहब जानते हैं
जलाना आशिक़ों का जान ऐ जाँ
क़यामत वाह साहब जानते हैं
भला देने की ज़ुल्फ़ों में दिलों को
निराली राह साहब जानते हैं
तुम्हारी मस्त आँखों से है बे-ख़ुद
जिसे आगाह साहब जानते हैं
तुम्हारे मुखड़े की ज़र्रा झलक है
कि जिस को माह साहब जानते हैं
मिलो हम से वगर्ना फिर किसी रोज़
कभी नागाह साहब जानते हैं
'मुहिब' बे-तरह कुछ तुम से कहेगा
वही तीर आह साहब जानते हैं
ग़ज़ल
हमारी चाह साहब जानते हैं
वलीउल्लाह मुहिब