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हमारी आज़माइश का अगर कुछ ग़म नहीं होगा | शाही शायरी
hamari aazmaish ka agar kuchh gham nahin hoga

ग़ज़ल

हमारी आज़माइश का अगर कुछ ग़म नहीं होगा

क़ाज़ी अनसार

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हमारी आज़माइश का अगर कुछ ग़म नहीं होगा
तो फिर ये सिलसिला-दर-सिलसिला भी कम नहीं होगा

ज़माना कैसे समझेगा कि हम पर वज्द है तारी
सुरूर-ओ-कैफ़-ओ-मस्ती का अगर आलम नहीं होगा

उठो फिर आ रहे हैं सब तुम्हें ललकारने वाले
किसी के हाथ में भी अम्न का परचम नहीं होगा

ये मुमकिन किस तरह होगा कि अपने शहर में लोगो
ख़फ़ा कोई नहीं होगा कोई बरहम नहीं होगा

हमारे पास आए शौक़ से 'अंसार' वो लेकिन
मोहब्बत की कोई रुत प्यार का मौसम नहीं होगा