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हमारी आँखें भी साहिब अजीब कितनी हैं | शाही शायरी
hamari aankhen bhi sahib ajib kitni hain

ग़ज़ल

हमारी आँखें भी साहिब अजीब कितनी हैं

अहमद अता

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हमारी आँखें भी साहिब अजीब कितनी हैं
कि दिल जो रोए तो कम-बख़्त हँसने लगती हैं

तुम्हारे शहर से चलिए कि तंग-दस्ती ने
तुम्हारे शहर की गलियाँ भी तंग कर दी हैं

ये हम हैं बे-हुनराँ देखिए हुनर-मंदी
जो कोई काम करें हम तो पोरें जलती हैं

न इस का वस्ल मिला और न रोज़गार यहाँ
सो पहले हिज्र-ज़दा थे और अब के हिज्रती हैं

तो शाह-ज़ादी को लाएँ वो महव-ए-ख़्वाब है क्या
हमें यक़ीं नहीं परियाँ भी झूट बोलती हैं