हमारी आँखें भी साहिब अजीब कितनी हैं
कि दिल जो रोए तो कम-बख़्त हँसने लगती हैं
तुम्हारे शहर से चलिए कि तंग-दस्ती ने
तुम्हारे शहर की गलियाँ भी तंग कर दी हैं
ये हम हैं बे-हुनराँ देखिए हुनर-मंदी
जो कोई काम करें हम तो पोरें जलती हैं
न इस का वस्ल मिला और न रोज़गार यहाँ
सो पहले हिज्र-ज़दा थे और अब के हिज्रती हैं
तो शाह-ज़ादी को लाएँ वो महव-ए-ख़्वाब है क्या
हमें यक़ीं नहीं परियाँ भी झूट बोलती हैं
ग़ज़ल
हमारी आँखें भी साहिब अजीब कितनी हैं
अहमद अता