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हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है | शाही शायरी
hamari aankh mein naqsha ye kis makan ka hai

ग़ज़ल

हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है

शहरयार

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हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है
यहाँ का सारा इलाक़ा तो आसमान का है

हमें निकलना पड़ा रात के जज़ीरे से
ख़तर अगरचे इस इक फ़ैसले में जान का है

ख़बर नहीं है कि दरिया में कश्ती-ए-जाँ है
मुआहिदा जो हवाओं से बादबान का है

तमाम शहर पर ख़ामोशियाँ मुसल्लत हैं
लबों को खोलो कि ये वक़्त इम्तिहान का है

कहा है उस ने तो गुज़रेगा जिस्म से हो कर
यक़ीन यूँ है वो पक्का बहुत ज़बान का है