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हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई | शाही शायरी
hamare zehn mein ye baat bhi nahin aai

ग़ज़ल

हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई

शहराम सर्मदी

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हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई
कि तेरी याद हमें रात भी नहीं आई

बिछड़ते वक़्त जो गरजे वो कैसे बादल थे
ये कैसा हिज्र कि बरसात भी नहीं आई

तुझे न पा सके हम इस का इक सबब ये है
पलट के गर्दिश-ए-हालात भी नहीं आई

हुआ यूँ हाथ से बाज़ी निकल गई इक रोज़
हमारे हिस्से में फिर मात भी नहीं आई

उलझ के रह गए क्या हम भी कार-ए-दुनिया में
कि नौबत-ए-सफ़र-ए-ज़ात भी नहीं आई