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हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं | शाही शायरी
hamare sar se wo tufan kahin guzar gae hain

ग़ज़ल

हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं

ज़फ़र इक़बाल

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हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं
चढ़े हुए थे जो दरिया सभी उतर गए हैं

रहे नहीं हैं कभी एक हाल पर क़ाएम
सिमट गए हैं कभी और कभी बिखर गए हैं

उसूल है कि ख़ला यूँही रह नहीं सकता
हुए हैं ख़ुद से जो ख़ाली सो तुझ से भर गए हैं

रुके भी हैं तो दोबारा रवानगी के लिए
चले भी हैं तो कहीं राह में ठहर गए हैं

तुम्हारे अहद-ए-तग़ाफ़ुल में जी रहे हैं अभी
हुआ है कुछ तुम्हें हासिल न हम ही मर गए हैं

निकल पड़े तो फिर अपना सुराग़ मिल न सका
तुम्हारे पास ही पहुँचे न अपने घर गए हैं

वही है दाएरा-ए-ख़्वाब इब्तिदा-ए-सफ़र
उसी क़दर हुए वापस भी जिस क़दर गए हैं

इसी कमी का है एहसास और हैरानी
हैं और तो सभी मौजूद हम किधर गए हैं

'ज़फ़र' हमारी मोहब्बत का सिलसिला है अजीब
जहाँ छुपा नहीं पाए वहाँ मुकर गए हैं