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हमारे जिस्मों में दिन ही का ज़हर क्या कम था | शाही शायरी
hamare jismon mein din hi ka zahr kya kam tha

ग़ज़ल

हमारे जिस्मों में दिन ही का ज़हर क्या कम था

इशरत क़ादरी

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हमारे जिस्मों में दिन ही का ज़हर क्या कम था
बरहना रात भी आई तो सब्ज़ मौसम था

हलाकतों का सिला क़ातिलों से क्या मिलता
कि क़तरा क़तरा लहू का नज़र में शबनम था

बिखरने टूटने का सिलसिला था राहों में
तमाम ख़्वाबों का ता'बीर-नामा मातम था

गराँ है मिट्टी का टूटा हुआ पियाला अब
यही वो हाथ हैं कल जिन में साग़र-ए-जम था

घिसट रहे थे ज़मीं पर हज़ार-हा इंसाँ
उमीद-ओ-बीम का हर इक चराग़ मद्धम था

मैं ज़िंदगी से शनासा हूँ इस क़दर 'इशरत'
निगाह उठती थी जिस सम्त हू का आलम था