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हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है | शाही शायरी
hamare jism ke andar bhi koi rahta hai

ग़ज़ल

हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है

शारिब मौरान्वी

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हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है
मगर ये कैसे कहें हम कि वो फ़रिश्ता है

अजीब शख़्स है वो प्यास के जज़ीरों का
पहन के धूप सदा मक़्तलों में रहता है

नज़र है दिन के चमकते लिबास पर सब की
क़बा-ए-शाम के पैवंद कौन गिनता है

हमारी उर्यां हथेली पे अब भी शाम-ओ-सहर
ये कौन है जो गुहर आँसुओं के रखता है

बिछड़ गए तो अकेले रहेंगे हम 'शारिब'
कि सारसों सा हमारा तुम्हारा रिश्ता है