हमारे चेहरों में पिन्हाँ हैं ज़ाविए क्या क्या
दबी ज़बान में कहते हैं आइने क्या क्या
जबीन-ए-ख़ाक तुझे मैं ने ख़ूँ से सींचा था
मगर ये तू ने दिखाए हैं दाएरे क्या क्या
हमारे सर की बुलंदी पे वक़्त हैराँ है
चखे हैं नोक-ए-सिनाँ ने भी ज़ाइक़े क्या क्या
तड़प के रूह ज़मीं-बोस हो गई वर्ना
बदन-चटान पे उठते थे ज़लज़ले क्या क्या
ख़िरद क़रार जो पाए तो हम भी देखेंगे
हैं इंतिशार के दामन में मसअले क्या क्या
तिरा ख़याल किसी साएबाँ से कम भी नहीं
लगाते रह गए सूरज भी क़हक़हे क्या क्या
शिकस्ता ख़्वाबों के जब आसमान खुलते हैं
बिखरते नक़्श भी देते हैं हौसले क्या क्या
अभी भी घर के लरज़ते हुए चराग़ों से
हवा-ए-शब ने लगाए हैं आसरे क्या क्या
तपिश में टूट के पत्ते बिखर गए 'आमिर'
नज़र के पाँव में उठते हैं आबले क्या क्या
ग़ज़ल
हमारे चेहरों में पिन्हाँ हैं ज़ाविए क्या क्या
आमिर नज़र