हमा-शुमा को नहीं दोस्त ही को भूल गया
न भूलना था जिसे वो उसी को भूल गया
तवंगरी ने बदल ही दिया है उस का मिज़ाज
वो मुझ को और मिरी दोस्ती को भूल गया
कमी तो मय की नहीं थी मगर मिरा साक़ी
किसी को जाम दिया और किसी को भूल गया
इताअतें ही तो जीने का ऐन मक़्सद है
ख़ुदा का बंदा मगर बंदगी को भूल गया
वो मेरी जान का दुश्मन है जानता था मैं
मिला जो हँस के तो में दुश्मनी को भूल गया
क़फ़स में रहने का सय्याद ये नहीं मतलब
क़फ़स में रह के मैं पर्वाज़ ही को भूल गया
तमाम-उम्र मैं शायद तिरी तलाश में था
तू मिल गया तो मैं आवारगी को भूल गया
सफ़र तवील था और मैं थका हुआ था 'नज़ीर'
लगन थी इतनी कि वामांदगी को भूल गया
ग़ज़ल
हमा-शुमा को नहीं दोस्त ही को भूल गया
नज़ीर मेरठी