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हम ज़र्रे हैं ख़ाक-ए-रहगुज़र के | शाही शायरी
hum zarre hain KHak-e-rahguzar ke

ग़ज़ल

हम ज़र्रे हैं ख़ाक-ए-रहगुज़र के

बाक़ी सिद्दीक़ी

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हम ज़र्रे हैं ख़ाक-ए-रहगुज़र के
देखो हमें बाम से उतर के

चुप हो गए यूँ असीर जैसे
झगड़े थे तमाम बाल-ओ-पर के

वा'दा न दिलाओ याद उन का
नादिम हूँ ख़ुद ए'तिबार कर के

ऐ बाद-ए-सहर न छेड़ हम को
हम जागे हुए हैं रात-भर के

शबनम की तरह हयात के ख़्वाब
कुछ और निखर गए बिखर के

जब उन को ख़याल-ए-वज़्अ' आया
अंदाज़ बदल गए नज़र के

यूँ मौत के मुंतज़िर हैं 'बाक़ी'
मिल जाएगा चैन जैसे मर के