हम ज़र्रे हैं ख़ाक-ए-रहगुज़र के
देखो हमें बाम से उतर के
चुप हो गए यूँ असीर जैसे
झगड़े थे तमाम बाल-ओ-पर के
वा'दा न दिलाओ याद उन का
नादिम हूँ ख़ुद ए'तिबार कर के
ऐ बाद-ए-सहर न छेड़ हम को
हम जागे हुए हैं रात-भर के
शबनम की तरह हयात के ख़्वाब
कुछ और निखर गए बिखर के
जब उन को ख़याल-ए-वज़्अ' आया
अंदाज़ बदल गए नज़र के
यूँ मौत के मुंतज़िर हैं 'बाक़ी'
मिल जाएगा चैन जैसे मर के
ग़ज़ल
हम ज़र्रे हैं ख़ाक-ए-रहगुज़र के
बाक़ी सिद्दीक़ी