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हम-ज़मीरों से जो भटकाए वो एज़ाज़ न दे | शाही शायरी
ham-zamiron se jo bhaTkae wo eazaz na de

ग़ज़ल

हम-ज़मीरों से जो भटकाए वो एज़ाज़ न दे

मुर्तज़ा बिरलास

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हम-ज़मीरों से जो भटकाए वो एज़ाज़ न दे
शौक़ से तू मुझे अब क़ुव्वत-ए-पर्दाज़ न दे

दाएरे टूट न जाएँ मिरे ख़्वाबों के कहीं
सो गया हूँ मुझे अब कोई भी आवाज़ न दे

तुझ को देना है अगर तल्ख़ी-ए-अंजाम का ज़हर
देने वाले मुझे ख़ुश-फ़हमी-ए-आग़ाज़ न दे

राज़-दारों का कहा मान के ये हाल हुआ
मशवरा कोई मुझे अब मिरा हमराज़ न दे

या फ़ज़ाओं को मुहीत-ए-मह-ओ-ख़ुर्शीद न कर
या मिरी फ़िक्र को तू जुरअत-ए-पर्वाज़ न दे

या ज़माने को तू महरूम-ए-समाअ'त कर दे
या मुझे दर्द में डूबी हुई आवाज़ न दे