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हम उन की नज़र में समाने लगे | शाही शायरी
hum unki nazar mein samane lage

ग़ज़ल

हम उन की नज़र में समाने लगे

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

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हम उन की नज़र में समाने लगे
मगर जब नज़र भी न आने लगे

ये तेरी सुख़न-साज़ियाँ हैं नदीम
किसी पर वो क्यूँ रहम खाने लगे

न दी ग़ैर ने दाद-ए-तर्ज़-ए-सितम
सितम-गर को हम याद आने लगे

न दानिश दुरुस्त और बीनिश बजा
दिल-ओ-दीदा दोनों ठिकाने लगे

गया था कि इन की ख़ुशामद करूँ
वो उल्टा मुझी को बनाने लगे

कभी ख़ैर-मक़्दम कभी मर्हबा
ज़बाँ पर ये अल्फ़ाज़ लाने लगे

कभी मेरे क़ुर्बान होते रही
कभी मुझ को पंखा हिलाने लगे

कभी लेट कर पाँव फैला दिए
कभी देख कर मुस्कुराने लगे

किया मैं ने जब अज़्म-ए-बोस-ओ-कनार
तो उठ बैठे और मुँह चिढ़ाने लगे

कहीं फिर दुपट्टा सँभलने लगा
कहीं आदमी को बुलाने लगे

ख़ुदाया किया किस ने उन पर सितम
इलाही ये क्यूँ ग़ुल मचाने लगे

वो दम में कब आते थे देते थे दम
कि समझूँ मिरे दम में आने लगे

वो महफ़िल में आएँ तो 'नाज़िम' ज़रूर
मुग़न्नी ये अशआ'र गाने लगे