हम उन के नक़्श-ए-क़दम ही को जादा करते रहे
जो गुमरही के सफ़र का इआदा करते रहे
कई सवाब तो निस्याँ में हो गए हम से
गुनाह कितने ही हम बे-इरादा करते रहे
न सिर्फ़ अहल-ए-ख़िरद ही का हम पे एहसाँ है
कि अहमक़ों से भी हम इस्तिफ़ादा करते रहे
कुछ इस सलीक़े से गुज़री है ज़िंदगी अपनी
हर एक तीर पे हम दिल कुशादा करते रहे
मिरे गिरोह का रिश्ता है उस क़बीले से
जो ज़िंदगी का सफ़र पा-पियादा करते रहे
हुआ है ऐसा कि फ़ारिग़ इरादतन भी कभी
हम अपनी राह में काँटे ज़ियादा करते रहे
ग़ज़ल
हम उन के नक़्श-ए-क़दम ही को जादा करते रहे
अहमद नदीम क़ासमी