हम उन के दर पे न जाते तो और क्या करते
उन्हें ख़ुदा न बनाते तो और क्या करते
बग़ैर इश्क़ अँधेरे में थी तिरी दुनिया
चराग़-ए-दिल न जलाते तो और क्या करते
हमें तो उस लब-ए-नाज़ुक को देनी थी ज़हमत
अगर न बात बढ़ाते तो और क्या करते
ख़ता कोई नहीं पीछा किए हुए दुनिया
जो मय-कदे में न जाते तो और क्या करते
अंधेरा माँगने आया था रौशनी की भीक
हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते
किसी से बात जो की है तो वो ख़फ़ा हैं 'नज़ीर'
किसी को दोस्त बनाते तो और क्या करते
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ग़ज़ल
हम उन के दर पे न जाते तो और क्या करते
नज़ीर बनारसी