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हम तिरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक से ख़तर करते हैं | शाही शायरी
hum teri KHatir-e-nazuk se KHatar karte hain

ग़ज़ल

हम तिरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक से ख़तर करते हैं

मीर मोहम्मदी बेदार

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हम तिरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक से ख़तर करते हैं
वर्ना नाले तो ये पत्थर में असर करते हैं

दिल ओ दीं था सो लिया और भी कुछ मतलब है
बार बार आप जो ईधर को नज़र करते हैं

फ़ाएदा क्या है अगर शर्क़ से ता-ग़र्ब फिरे
राह-रौ वे हैं जो हस्ती से सफ़र करते हैं

हम तो हर शक्ल में याँ आइना-ख़ाने की मिसाल
आप ही आते हैं नज़र सैर जिधर करते हैं

क्या हो गर कोई घड़ी याँ भी करम फ़रमाओ
आप इस राह से आख़िर तो गुज़र करते हैं

तेरे अय्याम-ए-फ़िराक़ ऐ सनम-ए-मेहर-गुसिल
आह मत पूछ कि किस तरह बसर करते हैं

दिन को फिरते हैं तुझे ढूँडने और रात तमाम
शम्अ की तरह से रो रो के सहर करते हैं

बस नहीं ख़ूब कि ऐसे को दिल अपना दीजे
आगे तू जान मियाँ हम तो ख़बर करते हैं

ये वही फ़ितना-ए-आशोब-ए-जहाँ है 'बेदार'
देख कर पीर ओ जवाँ जिस को हज़र करते हैं