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हम तशख़्ख़ुस खो रहे हैं ज़ात की तश्हीर में | शाही शायरी
hum tashaKHKHus kho rahe hain zat ki tashhir mein

ग़ज़ल

हम तशख़्ख़ुस खो रहे हैं ज़ात की तश्हीर में

क़ासिम जलाल

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हम तशख़्ख़ुस खो रहे हैं ज़ात की तश्हीर में
ख़ुद बिखरते जा रहे हैं कोशिश-ए-तामीर में

ये भी सोचें काश इज़्ज़त क्या है और ज़िल्लत है क्या
वो जो रुस्वा हो रहे हैं हसरत-ए-तौक़ीर में

आज नख़्ल-ए-मस्लहत की छाँव में है महव-ए-ख़्वाब
परवरिश जिस की हुई थी साया-ए-शमशीर में

ऐ सुख़नवर तुम जो कहते हो वो क्यूँ करते नहीं
क्यूँ हम-आहंगी नहीं किरदार और तहरीर में

उस की सुब्हें दिल-कुशा हैं उस की शामें जाँ-फ़िज़ा
खो गया जो शख़्स लुत्फ़-ए-नाला-ए-शब-गीर में

हो अता जिस शख़्स को नूर-ए-बसीरत ऐ 'जलाल'
देख लेता है मुसव्विर को भी वो तस्वीर में