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हम से शायद ही कभी उस की शनासाई हो | शाही शायरी
humse shayad hi kabhi uski shanasai ho

ग़ज़ल

हम से शायद ही कभी उस की शनासाई हो

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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हम से शायद ही कभी उस की शनासाई हो
दिल ये चाहे है कि शोहरत हो न रुस्वाई हो

वो थकन है कि बदन रेत की दीवार सा है
दुश्मन-ए-जाँ है वो पछुआ हो कि पुर्वाई हो

हम वहाँ क्या निगह-ए-शौक़ को शर्मिंदा करें
शहर का शहर जहाँ उस का तमाशाई हो

दर्द कैसा जो डुबोए न बहा ले जाए
क्या नदी जिस में रवानी हो न गहराई हो

कुछ तो हो जो तुझे मुम्ताज़ करे औरों से
जान लेने का हुनर हो कि मसीहाई हो

तुम समझते हो जिसे संग-ए-मलामत 'इरफ़ान'
क्या ख़बर वो भी कोई रस्म-ए-पज़ीराई हो