हम से शायद ही कभी उस की शनासाई हो
दिल ये चाहे है कि शोहरत हो न रुस्वाई हो
वो थकन है कि बदन रेत की दीवार सा है
दुश्मन-ए-जाँ है वो पछुआ हो कि पुर्वाई हो
हम वहाँ क्या निगह-ए-शौक़ को शर्मिंदा करें
शहर का शहर जहाँ उस का तमाशाई हो
दर्द कैसा जो डुबोए न बहा ले जाए
क्या नदी जिस में रवानी हो न गहराई हो
कुछ तो हो जो तुझे मुम्ताज़ करे औरों से
जान लेने का हुनर हो कि मसीहाई हो
तुम समझते हो जिसे संग-ए-मलामत 'इरफ़ान'
क्या ख़बर वो भी कोई रस्म-ए-पज़ीराई हो
ग़ज़ल
हम से शायद ही कभी उस की शनासाई हो
इरफ़ान सिद्दीक़ी