हम से रुख़्सार वो लब भूल गए
ज़िंदगी करने का ढब भूल गए
रात-दिन महव रहा करते थे
जाने क्या थी वो तलब भूल गए
आ गया सर पे ढलता सूरज
रात के शोर-ओ-शग़ब भूल गए
रंज-ए-महरूमी-ए-दिल याद रहा
रौनक़-ए-बज़्म-ए-तरब भूल गए
नक़्श-ए-दीवार बने बैठे हैं
याद इतना है कि सब भूल गए
ज़िंदगी बिगड़ी तो ऐसी बिगड़ी
जो भी थे रंज-ओ-तअब भूल गए
दिल में क्या क्या न थे अरमान 'सलाम'
शुक्र सद शुक्र कि सब भूल गए
ग़ज़ल
हम से रुख़्सार वो लब भूल गए
ऐन सलाम