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हम से न होगी तर्क-ए-वफ़ा ये और किसी को सुनाएँ आप | शाही शायरी
humse na hogi tark-e-wafa ye aur kisi ko sunaen aap

ग़ज़ल

हम से न होगी तर्क-ए-वफ़ा ये और किसी को सुनाएँ आप

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

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हम से न होगी तर्क-ए-वफ़ा ये और किसी को सुनाएँ आप
हम न सुनेंगे हज़रत-ए-नासेह लाख हमें समझाएँ आप

शर्म-ओ-हया के पर्दे में करते थे हम पे जफ़ाएँ आप
आप को हम पहचान गए मुँह आँचल से न छुपाएँ आप

ज़ुल्फ़ का तेरे इन से कोई मज़मूँ जो रक़म हो जाता है
फ़र्त-ए-ख़ुशी से ले लेता हूँ हाथों की अपने बुलाएँ आप

वाह-जी वा बस देख लिया क्या वज़्अ की है यही पाबंदी
कहते इस को हैं शर्म-ओ-हया हम जाँ से जाएँ न आएँ आप

सुन चुके हाल-ए-पुर्सिश-ए-महशर वाज़ की 'अंजुम' हद भी है
ये तो नहीं है हुक्म-ए-ख़ुदा रोज़ एक क़यामत ढाएँ आप