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हम से जो अहद था वो अहद-शिकन भूल गया | शाही शायरी
humse jo ahd tha wo ahd-shikan bhul gaya

ग़ज़ल

हम से जो अहद था वो अहद-शिकन भूल गया

पंडित जवाहर नाथ साक़ी

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हम से जो अहद था वो अहद-शिकन भूल गया
अपने उश्शाक़ को वो ग़ुंचा-दहन भूल गया

क़ैस का जलवा-ए-लैला जो हुआ होश-रुबा
वो सरासीमा हुआ नज्द का बन भूल गया

क्या करिश्मा ये तिरी चश्म-ए-सुख़न-गो ने किया
किस की जानिब था मिरा रू-ए-सुख़न भूल गया

ख़ार ख़ार-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ने किया राह ग़लत
तेरा मदहोश-ए-नज़र राह-ए-चमन भूल गया

निगह-ए-शौक़ ने दीवाना बनाया मुझ को
कुछ ख़बर अपनी नहीं है हमा-तन भूल गया

हो गया होश-रुबा हुस्न-ए-फ़रेब-ए-आलम
नल जो बाज़ी में लगा इश्क़-ए-दमन भूल गया

शौक़-ओ-रम तेरे जो देखे हैं ग़ज़ाल-ए-रअना
चौकड़ी अपनी बयाबाँ में हिरन भूल गया

सैर-ए-गुलज़ार में है महव-ए-तमाशा वो गुल
बुलबुल-ए-शेफ़्ता को ग़ुंचा-दहन भूल गया

सब्ज़ा-ए-ख़त ने तिरे राह में घेरा मुझ को
ग़र्क़ मैं हो न सका चाह-ए-ज़क़न भूल गया

महव होता ही नहीं इस का कभी दिल से ख़याल
याद करता ही नहीं मुश्फ़िक़-ए-मन भूल गया

शाहिद-ए-मस्त ने सरमस्त किया है 'साक़ी'
हम वो मदहोश हुए रंग-ए-सुख़न भूल गया