EN اردو
हम से दीवानों को असरी आगही डसती रही | शाही शायरी
humse diwanon ko asri aagahi Dasti rahi

ग़ज़ल

हम से दीवानों को असरी आगही डसती रही

असद रज़ा

;

हम से दीवानों को असरी आगही डसती रही
खोखली तहज़ीब की फ़र्ज़ानगी डसती रही

शो'ला-ए-नफ़रत तो भड़का एक लम्हे के लिए
मुद्दतों फिर शहर को इक तीरगी डसती रही

मौत की नागिन से अब हरगिज़ वो डर सकता नहीं
जिस को सारी उम्र ख़ुद ये ज़िंदगी डसती रही

मैं न जाने कितने जन्मों का हूँ प्यासा दोस्तो
रह के दरिया में भी मुझ को तिश्नगी डसती रही

आप के होंटों पे जो मुद्दत से है छाई हुई
दर्द में डूबी हुई वो ख़ामुशी डसती रही

एक तुम हो दुश्मनी भी रास आई है जिसे
और इक मैं हूँ कि जिस को दोस्ती डसती रही

हर घड़ी चेहरे पे जो चेहरे लगाता ही रहा
उम्र भर उस को 'असद' बे-चेहरगी डसती रही