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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शमाइल ठहरा | शाही शायरी
ham-sar-e-zulf qad-e-hur-e-shamail Thahra

ग़ज़ल

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शमाइल ठहरा

अमीर मीनाई

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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा
लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा

दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा
बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा

की नज़र रू-ए-किताबी पे तो कुछ दिल ठहरा
मक्तब-ए-शौक़ भी क़ुरआन की मंज़िल ठहरा

निगहत-ए-गुल से परेशान हुआ उस का दिमाग़
ख़ंदा-ए-गुल न हुआ शोर-ए-अनादिल ठहरा

नज्द से क़ैस जो आया मरे ज़िंदाँ की तरफ़
देर तक गोश-बर-आवाज़-ए-सलासिल ठहरा

हुस्न जिस तिफ़्ल का चमका वो हुआ बाइस-ए-क़त्ल
जिस ने तलवार सँभाली मिरा क़ातिल ठहरा

ख़त जो निकला रुख़-ए-जानाँ पे मिला बोसा-ए-ख़ाल
यही दाना फ़क़त इस किश्त का हासिल ठहरा

अलम इक नुक़्ता जो मशहूर था ऐ जोश-ए-जुनूँ
ग़ौर से की जो नज़र नुक़्ता-ए-बातिल ठहरा

दूर जब तक थे तड़पता था में कैसा कैसा
पास आ कर वो जो ठहरे तो मिरा दिल ठहरा

कसरत-ए-दाग़ से गुल-दस्ता बना दिल तो क्या
ज़ीनत-ए-बाग़ न आराइश-ए-महफ़िल ठहरा

दौड़ता क़ैस भी आता है निहायत ही क़रीब
इक ज़रा नाक़े को ऐ साहिब-ए-महमिल ठहरा

दम जो बेताब था मुद्दत से मिरे सीने में
तेग़-ए-क़ातिल के तले कुछ दम-ए-बिस्मिल ठहरा

हम बड़ी दूर से आए हैं तुम्हारा है ये हाल
घर से दरवाज़े तक आना कई मंज़िल ठहरा

अब तक आती है सदा तुर्बत-ए-लैला से 'अमीर'
सारबान अब तो ख़ुदा के लिए महमिल ठहरा