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हम समझते हैं आज़माने को | शाही शायरी
hum samajhte hain aazmane ko

ग़ज़ल

हम समझते हैं आज़माने को

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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हम समझते हैं आज़माने को
उज़्र कुछ चाहिए सताने को

संग-ए-दर से तिरे निकाली आग
हम ने दुश्मन का घर जलाने को

सुब्ह-ए-इशरत है वो न शाम-ए-विसाल
हाए क्या हो गया ज़माने को

बुल-हवस रोए मेरे गिर्ये पे अब
मुँह कहाँ तेरे मुस्कुराने को

बर्क़ का आसमान पर है दिमाग़
फूँक कर मेरे आशियाने को

संग-ए-सौदा जुनूँ में लेते हैं
अपना हम मक़बरा बनाने को

शिकवा है ग़ैर की कुदूरत का
सो मिरे ख़ाक में मिलाने को

रोज़-ए-महशर भी होश गर आया
जाएँगे हम शराब-ख़ाने को

सुन के वस्फ़ उस पे मर गया हमदम
ख़ूब आया था ग़म उठाने को

कोई दिन हम जहाँ में बैठे हैं
आसमाँ के सितम उठाने को

नक़्श-ए-पा-ए-रक़ीब की मेहराब
नहीं ज़ेबिंदा सर झुकाने को

चल के काबे में सज्दा कर 'मोमिन'
छोड़ उस बुत के आस्ताने को