हम समझते हैं आज़माने को
उज़्र कुछ चाहिए सताने को
संग-ए-दर से तिरे निकाली आग
हम ने दुश्मन का घर जलाने को
सुब्ह-ए-इशरत है वो न शाम-ए-विसाल
हाए क्या हो गया ज़माने को
बुल-हवस रोए मेरे गिर्ये पे अब
मुँह कहाँ तेरे मुस्कुराने को
बर्क़ का आसमान पर है दिमाग़
फूँक कर मेरे आशियाने को
संग-ए-सौदा जुनूँ में लेते हैं
अपना हम मक़बरा बनाने को
शिकवा है ग़ैर की कुदूरत का
सो मिरे ख़ाक में मिलाने को
रोज़-ए-महशर भी होश गर आया
जाएँगे हम शराब-ख़ाने को
सुन के वस्फ़ उस पे मर गया हमदम
ख़ूब आया था ग़म उठाने को
कोई दिन हम जहाँ में बैठे हैं
आसमाँ के सितम उठाने को
नक़्श-ए-पा-ए-रक़ीब की मेहराब
नहीं ज़ेबिंदा सर झुकाने को
चल के काबे में सज्दा कर 'मोमिन'
छोड़ उस बुत के आस्ताने को
ग़ज़ल
हम समझते हैं आज़माने को
मोमिन ख़ाँ मोमिन