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हम सकूँ पाएँगे सलमाओं में क्या | शाही शायरी
hum sakun paenge salmaon mein kya

ग़ज़ल

हम सकूँ पाएँगे सलमाओं में क्या

रज़ा हमदानी

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हम सकूँ पाएँगे सलमाओं में क्या
ख़ुशबुओं का क़हत है गाँव में क्या

कम नहीं गहरे सुंदर से जो दिल
वो भला डूबेगा दरियाओं में क्या

हर तरफ़ रौशन हैं यादों के कलस
घिर गए हैं हम कलीसाओं में क्या

जिन की आँखों में है नींदों का ग़ुबार
रौशनी पाएँगे सहराओं में क्या

रात दिन क़रनों से हूँ गर्म-ए-सफ़र
एक चक्कर है मिरे पाँव में क्या

धूप तो बदनाम है यूँही 'रज़ा'
फूल मुरझाते नहीं छाँव में क्या