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हम-सफ़र होता कोई तो बाँट लेते दूरियाँ | शाही शायरी
ham-safar hota koi to banT lete duriyan

ग़ज़ल

हम-सफ़र होता कोई तो बाँट लेते दूरियाँ

सरदार अंजुम

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हम-सफ़र होता कोई तो बाँट लेते दूरियाँ
राह चलते लोग क्या समझें मिरी मजबूरियाँ

मुस्कुराते ख़्वाब चुनती गुनगुनाती ये नज़र
किस तरह समझें मिरी क़िस्मत की ना-मंज़ूरियाँ

हादसों की भीड़ है चलता हुआ ये कारवाँ
ज़िंदगी का नाम है लाचारियाँ मजबूरियाँ

फिर किसी ने आज छेड़ा ज़िक्र-ए-मंज़िल इस तरह
दिल के दामन से लिपटने आ गई हैं दूरियाँ