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हम राज़-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल जान गए हैं | शाही शायरी
hum raaz-e-giraftari-e-dil jaan gae hain

ग़ज़ल

हम राज़-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल जान गए हैं

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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हम राज़-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल जान गए हैं
फिर भी तिरी आँखों का कहा मान गए हैं

तू शोला-ए-जाँ निकहत-ए-ग़म सौत-ए-तलब है
हम जान-ए-तमन्ना तुझे पहचान गए हैं

क्या क्या न तिरे शौक़ में टूटे हैं यहाँ कुफ़्र
क्या क्या न तिरी राह में ईमान गए हैं

इस रक़्स में शोले के कोई सेहर तो होगा
परवाने बड़ी आन से क़ुर्बान गए हैं

खींचे है मुझे दस्त-ए-जुनूँ दश्त-ए-तलब में
दामन जो बचाए हैं गरेबान गए हैं

'बाक़र' है इसी गर्द-ए-रह-ए-दिल का परस्तार
जिस राह से कुछ साहब-ए-दीवान गए हैं