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हम फड़क कर तोड़ते सारी क़फ़स की तीलियाँ | शाही शायरी
hum phaDak kar toDte sari qafas ki tiliyan

ग़ज़ल

हम फड़क कर तोड़ते सारी क़फ़स की तीलियाँ

शाह नसीर

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हम फड़क कर तोड़ते सारी क़फ़स की तीलियाँ
पर नहीं ऐ हम सफ़ीरो! अपने बस की तीलियाँ

बहर-ए-ऐवाँ और बनवा चिलमन ऐ पर्दा-नशीं
हो गई बद-रंग हैं अगले बरस की तीलियाँ

ख़ाक में ना जिंस रहते हैं न अहल-ए-इम्तियाज़
ऐ फ़लक बनती नहीं जारूब ख़स की तीलियाँ

ऐन फ़स्ल-ए-गुल में ही सय्याद-ए-बे-परवा ने आह
दस के पर कतरे तो कीं आँखों में दस की तीलियाँ

हिर्स-ए-दुनिया चाहती है ये कि सीम-ओ-ज़र की हों
ये चराग़-ए-ख़ाना-ए-अहल-ए-हवस की तीलियाँ

इम्तियाज़-ए-नेक-ओ-बद ख़ुद हो न जिस को ऐ 'नसीर'
उस के नज़दीक एक हैं ख़ाशाक-ओ-ख़स की तीलियाँ