हम फड़क कर तोड़ते सारी क़फ़स की तीलियाँ
पर नहीं ऐ हम सफ़ीरो! अपने बस की तीलियाँ
बहर-ए-ऐवाँ और बनवा चिलमन ऐ पर्दा-नशीं
हो गई बद-रंग हैं अगले बरस की तीलियाँ
ख़ाक में ना जिंस रहते हैं न अहल-ए-इम्तियाज़
ऐ फ़लक बनती नहीं जारूब ख़स की तीलियाँ
ऐन फ़स्ल-ए-गुल में ही सय्याद-ए-बे-परवा ने आह
दस के पर कतरे तो कीं आँखों में दस की तीलियाँ
हिर्स-ए-दुनिया चाहती है ये कि सीम-ओ-ज़र की हों
ये चराग़-ए-ख़ाना-ए-अहल-ए-हवस की तीलियाँ
इम्तियाज़-ए-नेक-ओ-बद ख़ुद हो न जिस को ऐ 'नसीर'
उस के नज़दीक एक हैं ख़ाशाक-ओ-ख़स की तीलियाँ
ग़ज़ल
हम फड़क कर तोड़ते सारी क़फ़स की तीलियाँ
शाह नसीर