हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
आग़ाज़ क्यूँ किया था सफ़र इन ख़लाओं का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की सूरत दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाए झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
ग़ज़ल
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
शहरयार