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हम ने माना कि जहाँ हम थे गुलिस्ताँ तो न था | शाही शायरी
humne mana ki jahan hum the gulistan to na tha

ग़ज़ल

हम ने माना कि जहाँ हम थे गुलिस्ताँ तो न था

सुल्तान गौरी

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हम ने माना कि जहाँ हम थे गुलिस्ताँ तो न था
मगर ऐसा भी वहाँ कूचा-ए-वीराँ तो न था

अपना साया था फ़क़त ज़ीस्त का सामाँ तो न था
साथ चलता था जो साया मिरे इंसाँ तो न था

ख़ार-ओ-ख़स गुल से नहीं कम तिरे वीरानों के
दश्त में वर्ना कहीं कोई गुलिस्ताँ तो न था

ज़र्रा ज़र्रा है तिरी ख़ाक का महबूब मुझे
उस का एहसास मुझे याँ है मगर वाँ तो न था

मुझ पे इल्ज़ाम लगाते हो जुनूँ-ख़ेज़ी का
चाक-दामाँ था मगर चाक-गरेबाँ तो न था

कौन समझेगा उसे उस को ज़रूरत क्या है
कभी मोहताज-ए-बयाँ क़िस्सा-ए-'सुल्ताँ' तो न था